वैष्णव धर्म
इस आन्दोलन के भावनात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व 12 अल्वार संतों ने किया। अल्वार का अर्थ होता है ईश्वर के गुणों में डूबाने वाला।

महत्त्वपूर्ण सन्त- प्रारम्भिक अल्वार संत पोयगई था। दूसरे तिरूमलिशई, तीसरे तिरूमंगई एवं चौथे पेरिपालवार हुए। केरल के शासक कुलशेखर भी अलवार थे। अलवारों में एक मात्र महिला अंदाल थी। आचायों ने अलवारों की व्यक्तिगत भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। भक्ति का समन्वय कर्म एवं ज्ञान से हो गया।

सबसे पहला आचार्य नाथमुनी थे जिन्होंने न्याय तत्व की रचना की। परम्परा के अनुसार, वे श्रीरंग मंदिर में भगवान की मूर्ति में प्रवेश कर गए। यमुनाचार्य ने आगमों की महत्ता को प्रतिष्ठित किया और उन्हें वेदों का समकक्ष माना।

रामानुज- ये यमुनाचार्य के शिष्य थे। इनका जन्म कांची के पास पेरम्बदुर में हुआ। उन्होंने श्री भाष्य नामक ग्रन्थ की रचना की और विशिष्टताद्वैत का दर्शन दिया। रामानुज पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा में कोई अन्तर नहीं समझते थे। उनके विचार में उत्तर मीमांसा के अध्ययन से पहले पूर्व मीमांसा का अध्ययन आवश्यक है। वे सामान्य एवं विशेष भक्ति में अन्तर स्थापित करते हैं और ऐसा कहते हैं कि सामान्य भक्ति ईश्वर का निरन्तर ध्यान है एवं विशेष भक्ति ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान है। माना जाता है कि चोल शासकों से उनका मतभेद हो गया (कुलोत्तुंग प्रथम एवं कुलोत्तुंग द्वितीय), इन्हें कुलोत्तुंग प्रथम के विरोध का सामना करना पड़ा, उन्हें श्रीरंगम् छोड़ना पड़ा। माना जाता है जब कुलोत्तुंग द्वितीय ने गोविन्दराज की मूर्ति को फिकवा दिया था तो रामानुज ने उसे तिरुपति के मंदिर में स्थापित किया। रामानुज ने भक्ति संप्रदाय एवं हिन्दू धर्म के बीच सेतु का कार्य किया। यद्यपि रामानुज उच्चवर्ग के लिए विशेषाधिकार चाहते थे किन्तु वे शूद्रों को मंदिर प्रवेश से वर्जित नहीं करते थे।

निम्बाकाचार्य- रामानुज के समकालीन थे, उनका जन्म बेलारी जिला के निम्बापुर गाँव में हुआ था। वे तेलुगु ब्राह्मण थे किन्तु उनका अधिकांश समय वृन्दावन में बीता।

माधवाचार्य- इनका जन्म दक्षिणी कन्नड़ जिले के उदिची तालुक में हुआ था। इन्हें वायु का अवतार माना गया है। तेरहवीं एवं चौदहवीं सदी में रामानुज के अनुयायियों में फूट पड़ गई। उत्तरी शाखा बडगलई एवं दक्षिणी शाखा तेंगलई कहलायी। वडगलई-तमिल भाषा का प्रयोग करते थे जबकि तेंगलई-संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे। वैष्णव एवं शैव मतों का व्यापक प्रचार हुआ। इसमें अलवारों एवं नयनारों की प्रबल भूमिका थी। अधिकतर चोल कट्टर शैव थे। चोल नरेश आदित्य प्रथम ने कावेरी के किनारे शिव मंदिर का निर्माण कराया। शैव संत नंबी अंदाल नंबी ने शैवमंत्रों को धार्मिक ग्रंथों में शामिल किया। ये राजराज प्रथम एवं राजेन्द्र के समकालीन थे। परांतक प्रथम ने दभ्रसभा का निर्माण किया। वैष्णव मत के प्रमुख आचार्य काफी समय तक श्रीरंग मंदिर में रहे, उन्होंने विशिष्टाद्वैत मत का प्रचार किया। कुलोत्तुंग द्वितीय चिदम्बरम मंदिर से गोविन्दराज विष्णु की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। इसे रामानुज ने पुन: उठाकर इसे तिरुपति के विशाल वैष्णव मंदिर में स्थापित कराया। रामानुजाचार्य ने भक्तिसंप्रदाय एवं हिन्दू धर्म के मध्य सेतु का काम किया। 13वीं सदी में कन्नड़ में धर्मोपदेश देने वाले माधव ने भी धर्म के साथ भक्ति का संतुलन बैठने की कोशिश की। माधव के अनुसार, विष्णु अपने भक्तों पर अनुग्रह अपने पुत्र वायु देवता द्वारा करते हैं। रामानुजाचार्य उच्च वेर्न हेतु विशेष सुविधा स्वीकार करते हुए भी इस बात के विरुद्ध थे की शूद्रों को मंदिर में प्रवेश से वंचित किया जाए। धवलेश्वरम से चोलों के स्वर्ण सिक्के के ढेर मिलें हैं।













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