महेन्द्रवर्मन द्वितीय (668-670 ई.)
नरसिंह वर्मन की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन द्वितीय सिंहासन पर बैठा किन्तु 670 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार उसका शासन-काल दो वर्ष तक ही रहा।
परमेश्वरवर्मन् प्रथम (670-695 ई.)
महेन्द्रवर्मन् द्वितीय के उपरान्त उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन् गद्दी पर बैठा। परमेश्वरवर्मन् प्रथम के समय चालुक्य नरेश विक्रमादित्य से प्रथम ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर कांची पर अधिकार कर लिया और कावेरी नदी तक अपनी सत्ता स्थापित कर ली। किन्तु बाद में परमेश्वरवर्मन् ने चालुक्यों को अपने प्रदेश से निकाल बाहर कर दिया। परमेश्वरवर्मन् प्रथम शैव मतावलम्बी था। उसने भगवान शिव के अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। ममल्लपुरम् का गणेश मन्दिर सम्भवत: परमेश्वरवर्मन ने ही बनवाया था। परमेश्वरवर्मन् प्रथम ने चित्त माय, गुणभाजन, श्रीमार और रणजय विस्द धारण किए थे।





नरसिंहवर्मन् द्वितीय (695-722 ई.)
नरसिंहवर्मन परमेश्वर वर्मन प्रथम का पुत्र और उत्तराधिकारी था। नरसिंहवर्मन का शासन-काल अपेक्षाकृत शान्ति और व्यवस्था का था। नरसिंहवर्मन ने अपने शान्तिपूर्ण शासन का सदुपयोग समाज और संस्कृति के विकास में लगाया। उसने अपने राज्य में अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया। इन मन्दिरों में कांची का कैलाशनाथ मन्दिर, महाबलिपुरम् का तथाकथित शोर मन्दिर कांची का ऐरावत मन्दिर और पनामलई के मन्दिर मुख्य हैं। इन सभी मन्दिरों में नरसिंहवर्मन के अभिलेख अंकित है। उसे अपने पिता तथा पितामहा की भाँति विस्दों से विशेष लगाव था। केवल कैलाश मन्दिर की दीवारों पर ही उसकी 250 से अधिक उपाधियाँ उत्कीर्ण हैं। श्री शंकर मल्ड, श्रीवाद्य विद्याधर, श्री आगमप्रिय, शिवचूडामणि तथा राजसिंह उसके कुछ मुख्य विस्द हैं। कला के साथ उसने साहित्यकारों को भी संरक्षण दिया।


परमेश्वरवर्मन द्वितीय (722-730 ई.)
नरसिंहवर्मन का उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन् द्वितीय था। दशकुमारचरित के रचयिता महाकवि दण्डी उसका दरबारी कवि था। चीन के साथ उसने संबंध स्थापित किये और अपना दूत वहाँ भेजा था। शासन-काल के समय चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय ने काँची पर आक्रमण किया। युद्ध में परमेश्वरवर्मन् द्वितीय पराजित हुआ। गंग नरेश श्री पुरुष से युद्ध करते समय उसकी मृत्यु हो गयी। परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के कोई पुत्र न था। मंत्रियों ने पल्लवों की एक अन्य शाखा के राजकुमार नन्दिवर्मन् पल्लवमल्ल को शासक बनाया। नन्दिवर्मन् द्वितीय पल्लवमल (730-795 ई.) शासनकाल के लगभग माना गया है। नन्दिनवर्मन् साहसी एवं उत्साही शासक था जिसने पल्लव शक्ति का पुनर्गठन किया। इसके शासनकाल में भी पल्लव-चालुक्य संघर्ष हुए। चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची पर अधिकार कर लिया था लेकिन नंदिवर्मन ने पुन: उस पर अधिकार जमाया। विक्रमादित्य द्वितीय ने काँची पर तीन बार आक्रमण किया था और सुदूर दक्षिण में पल्लवों का अधिपत्य समाप्त कर दिया।

छठी से आठवीं शताब्दियों के बीच चालुक्यों व पल्लवों में संघर्ष चलता रहा। दोनों के संघर्ष का कारण शासकों की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं के साथ-साथ आर्थिक लाभ था। दोनों ने कृष्णा और तुगभद्रा के दोआब पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश की। नन्दिवर्मन ने पाण्ड्यों से भी संघर्ष किया और उन्हें पराजित किया। उसका समकालीन पाण्ड्य नरेश भारवर्मन राजसिंह प्रथम था। नन्दिवर्मन को गंगों के विरुद्ध भी विजय प्राप्त हुई। गंगनरेश श्री पुरुष पराजित हुआ। इस विजय से उसे आर्थिक लाभ हुआ। नरसिंहवर्मन ने अपनी सुरक्षा के लिए पाण्ड्यों के विरुद्ध एक संघ का निर्माण किया था। लेकिन इसे पाण्ड्य राजा राजसिंह ने नष्ट कर दिया। चालुक्यों के शासक कीर्तिवर्मन से नन्दिवर्मन को पराजय मिली। दक्षिण में उसी दौरान एक और सत्ता का उदय हो रहा था, वे थे राष्ट्रकूट। नन्दिवर्मन कलाप्रिय शासक था, जिसने कांची में बैकुण्ठ, पेरुमाल तथा मुक्तेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया। बहुत से पुराने मंदिरों का भी उसने जीर्णोद्धार करवाया। वह वैष्णव था, आचार्य तिरुमंग अलवार उसका समकालीन था।


दन्तिवर्मन (795-845 ई.)
795 ई. से 845 ई. तक दन्तिवर्मन का काल है। इसके समय पल्लवों का पाण्ड्यों से संघर्ष हुआ। पल्लव राज्य के कुछ भाग पाण्ड्यों के हाथ में चले गये। दन्तिवर्मन के समय आन्दोलन का भी विकास हुआ। प्रसिद्ध संत सुन्दरमूर्ति व चरुभान पेरुमाल उसके समकालीन थे। प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य का भी यही काल था। दन्तिवर्मन के बाद उसका पुत्र नन्दिवर्मन तृतीय शासक बना जिसका काल 545 ई. से 856 ई. है। उसने तेलेलार का युद्ध किया जिसमें पांडयों, गंगा, चोलों की सम्मिलित पराजय हुई। नन्दिवर्मन तृतीय के पुत्र ने इस पराजय का बदला पाण्ड्य राजा श्रीमाल को हराकर लिया। अपराजित वर्मन इस वंश का अंतिम राजा था। इसने पाण्ड्यों को पराजित किया लेकिन चोलराज आदित्य प्रथम से इसका अंतिम युद्ध हुआ और प्रशस्ति प्राप्त की। पल्लवों के राज्य (कोण्डमण्डलम) को शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। नन्दिवर्मन द्वितीय के बाद से ही पल्लवों का चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, पाण्ड्यों व चोलों से बराबर संघर्ष चला। पल्लव शासक सामंतों की स्थिति में आ गये उनका राज्य चोल साम्राज्य में मिला लिया गया।

सांस्कृतिक क्षेत्र में पल्लवों का योगदान अमूल्य है। पल्लव शासक सांस्कृतिक अभिरुचि रखते थे और धार्मिक दृष्टि से सहिष्णुतावादी थे। उनके काल में साहित्य, कला और धर्म का विकास हुआ। पल्लवों ने मंदिर निर्माण की नवीन शैली जिसे मामल्ल शैली कहा जाता है, की शुरुआत की। पल्लवी शासकों ने मंदिर निर्माण में रुचि ली जिसके कारण पल्लव वास्तुकला का विकास हुआ। महेन्द्रवर्मन ने गुफा मंदिर निर्माण शैली विकसित की। शिलाओं को तराश कर मंदिर बनाए गए। प्रमुख मंदिर लक्षितायन-मण्डप, रुद्रवालीश्वर मदिर, पचपाण्डव मदिर, विष्णु-माण्डप आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। गुहा मंदिरों के निर्माण में नरसिंह वर्मन प्रथम ने रुचि ली। इसके अंतर्गत मण्डप तथा रथ मदिरों का निर्माण कराया गया। महाबलिपुरम् में बहुत से मण्डप (वराह, पुलिपुरद, पंचपाण्डव, महिषमर्दिणी आदि) वास्तु सौंदर्य की दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट हैं। इनमें बहुत से पौराणिक दृश्यों को भी अलंकृत किया गया है। रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ, नकुल रथं, सहदेव रथ, अर्जुन रथं, धर्मराज रथ्, भीमरथं, गणेश रथं, पिंडारी रथ आदि उल्लेखनीय हैं। राजसिंह शैली के अंतर्गत बहुत से शैव मंदिरों का निर्माण किया गया। कांचीपुरम का कैलाश मंदिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है। यह द्राविड़ कला शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसे आठवीं शती के प्रारम्भ में बनवाया गया। इसे राजराजेश्वर मंदिर के नाम से भी संबोधित किया जाता है। पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वितीय ने परम्परागत वास्तु शैलियों से हटकर ईंट, पत्थर आदि के उपयोग से मंदिर निर्माण की नवीन परम्परा आरम्भ की। कैलाश मदिर की परम्परा में ही मुक्तेश्वर और मांगतेश्वर मंदिरों का निर्माण किया गया। पल्लव द्राविड़ कला शैली के विकास का अंतिम रूप अपराजित के शासन काल में प्रकट हुआ। शिवलिंग अपेक्षाकृत और वर्तुलाकार बनाए जाने लगे। स्तंभों व कीर्तिमुखों से निर्माण को और अधिक उत्कृष्टता प्रदान की गयी। गुड्डीभल्लभ मंदिर इसका उदाहरण है। इस शैली के विकास के साथ ही चोल कला का अभ्युदय होने लगा, जिस पर अपराजित शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है।

संस्कृत शिक्षा का प्रमुख केन्द्र पल्लवों की राजधानी काँची थी। पल्लवों का संस्कृत प्रेम उनके अभिलेखों से स्पष्ट होता है जिनकी भाषा संस्कृत है। प्रमुख महाकाव्य किरातार्जुनीयम् के रचयिता भारवि पल्लव सिंहविष्णु (574 ई.-600 ई.) के समय के विद्वान् थे। बहुत से विद्वानों दिमाम, मयूराशर्मन, दण्डी और भानुदत्त आदि ने कांची की यात्रा की थी।

इसी काल में मत्तविलास की रचना भी हुई थी। बहुत से इतिहासकार यह भी मानते हैं कि नरसिंहवर्मन के समय (680 ई. से 720 ई.) भास और शूद्रक के नाटकों को संक्षिप्त किया गया था जिससे उनका अभिनय किया जा सके। पल्लव धार्मिक दृष्टि से उदारवादी शासक थे, फलत: उन्होंने बहुत से मंदिरों का निर्माण करवाया। सन्त अय्यर और तिरुज्ञान सम्बन्दर जैसे संतों को उन्होंने संरक्षण प्रदान किया।




















































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